भारत के विकास को अध्ययन की सुविधा के लिए तीन कालों-प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल में विभाजित किया गया हैं। हमारी वर्तमान संस्कृति की विशेषताएँ पूर्ववर्ती कालों से ग्रहण की गई हैं। विरासत के रुप में यह निरन्तरता हमारे जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। यद्यपि भारतीय संस्कृति में कुछ जुडा और घटा है, परन्तु इसकी समग्र मूलभूत संरचना निरंतर बनी हुई है एवं भारत की लगभग आधी आबादी महिला मतदाताओं की है। संविधान के मुताबिक मतदाताओं को सजग रहकर अपने अधिकारो का उपयोग करना पडता है। हमारे संविधान में यह अधिकार स्त्रिायों को भी दिया है। मगर इस अधिकार का वैसा प्रभावी अमल नही होता। स्त्रिायों के कितने प्रश्न बीच अधर में लटके हुए हैं, जिनका कोई निराकरण नही होता। भारत की आजादी को 70 वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो चुका है, संविधान में समान अवसर तथा हिफाजत का आश्वासन भी दिया है, कानूनी अधिकारो में भी सुधार किया गया है, व्यापक स्तर पर अक्षर ज्ञान देने के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई गई हैं। इन सब के बावजूद हमारे समाज में स्त्रिायों का मूल्य एवं स्ािान उस स्थान तक नही उठ पाया जितना उठना चाहिए था। आज स्त्रिायाँ कुछ जाग्रत तो हुई हैं किन्तु उनमें निराशा व्याप्त है। आजादी से पहले एवं बाद में भी स्त्रिायों ने पर्याप्त सामाजिक कार्य किए हैं, वे कल्याण के काम भी करती रहीं किन्तु वे अपनी नारी शक्ति का निर्माण नही कर पायीं । वर्तमान भारतीय समाज व्यवस्था पुरुस प्रधान है, इस में कोई दो मत नहीं। सभी धर्मो के पारिवारिक कायदांे ने भी स्त्रिायों के न्याय एवं समानता का अधिकार नकार दिया है। समानता के आदर्श की बाते जोर-शोर से करने वाले लोग राजनीतिक दल, लोकसभा, विधानसभा स्थानीय स्वराज संस्थाओं या ग्राम पंचायतों में स्त्रिायों को लेते ही नहीं जो एक अत्यन्त शोचनीय बात है। राष्ट्रीय आयोजनाओं के निर्माण में तथा उससे सम्बन्धित कार्यक्रमों को कार्यान्वित करने में जब स्त्राी को भी साझेदार बनाया जाएगा तभी सही अर्थों में लोकशाही स्थापित हो सकेगी ।
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